समाचारअरहर की वैज्ञानिक खेती-MIRZAPUR

अरहर की वैज्ञानिक खेती-MIRZAPUR

डॉ संजीत कुमार एवं ओपिन कुमार ,कृषि विज्ञान केंद्र, *तकनीकी सहायक, कृषि विभाग, उत्तरप्रदेश
किसान भाइयों, अरहर हमारे देश की प्रमुख दलहनी फसल है जिसको मुख्य रुप से खरीफ के मौसम में उगाया जाता है । यह फसल दलहन उत्पादन के साथ-साथ वातावरण की नाइट्रोजन को भूमि के अंदर एकत्र करती रहती है जिससे भूमि की उर्वरता में भी सुधार होता है। अरहर की दीर्घकालीन प्रजातियॉं मृदा में 200 कि0ग्रा0 तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का स्थरीकरण कर मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता में वृद्धि करती है। शुष्क क्षेत्रों में अरहर किसानों द्वारा प्राथमिकता से बोई जाती है। असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती लाभकारी सिद्ध हो सकती है क्योंकि गहरी जड़ के एवं अधिक तापक्रम की स्थिति में पत्ती मोड़ने के गुण के कारण यह शुष्क क्षेत्रों में सर्वउपयुक्त फसल है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश देश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं। अरहर की दाल में लगभग 20-21 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है, साथ ही इस प्रोटीन का पाच्यमूल्य भी अन्य प्रोटीन से अच्छा होता है। दलहन प्रोटीन का सशक्‍त स्‍त्रोत होने से भारतीयों के भोजन में इनका समावेश होता है।

अरहर की प्रति 100 ग्राम दाल से ऊर्जा-343 किलो कैलोरी, कार्बोहाइड्रेट-62.78 ग्राम, फाइबर-15 ग्राम, प्रोटीन-21.7 ग्राम, विटामिन जैसे; थाइमिन (बी1) 0.643 मिग्रा, रिबोफैविविन (बी2) (16%) 0.187 मिग्रा, नियासिन (बी3) 2. 965 मिग्रा तथा खनिज पदार्थ जैसे; कैल्शियम, 130 मिग्रा, आयरन 5.23 मिग्रा, मैग्नेशियम 183 मिग्रा, मैंगनीज 1.791 मिग्रा, फास्फोरस 367 मिग्रा, पोटेशियम 1392 मिग्रा, सोडियम 17 मिग्रा, जिंक 2.76 मिग्रा आदि पोषक तत्व मिलते हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी: इसे विविध प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है, पर हल्‍की रेतीली दोमट या मध्‍यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में फॉस्फोरस तथा पी.एच.मान 7-8 के बीच हो व समुचित जल निकासी वाली हो इस फसल के लिये उपयुक्‍त है। गहरी भूमि व पर्याप्‍त वर्षा वाले क्षेत्र में मध्‍यम अवधि की या देर से पकने वाली जातियॉ बोनी चाहिए। हल्‍की रेतीली कम गहरी ढलान वाली भूमि में व कम वर्षा वाले क्षेत्र में जल्‍दी पकने वाली जातियां बोना चाहिए। देशी हल या ट्रेक्‍टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई करे व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्‍यवस्‍था करें।

बोनी का समय, बीज की मात्रा: अरहर की बोनी वर्षा प्रारंभ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्‍यत: जून के अंतिम सप्‍ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक बोनी करें। जल्‍दी पकने वाली जातियों में 25- 30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टर एवं मध्‍यम पकने वाली जातियों में 12 से 15 किलो ग्राम बीज / हेक्‍टर बोना चाहिए। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 30 से 45 से.मी व मध्‍यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 60 से 75 सें.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 10-15 से.मी. एवं मध्‍यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 20 – 25 से.मी. रखें।

बीजोपचार: ट्रायकोडर्मा बिरिडी 10 ग्राम/किलो या 2 ग्राम थाइरम/एक ग्राम बेबीस्टोन (2:1) में मिलाकर 3 ग्राम प्रति किलो की दर से बीजोपचार करने से फफूंद नष्ट हो जाती है । बीजोपचार के उपरांत अरहर का राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार उपरांत अरहर का राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम एवं पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करें । बीज को कल्चर से उपचार करने के बाद छाया में सुखाकर उसी दिन बोनी करें।

बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा से बीजोपचार करना बहुत जरूरी है। 2 ग्राम थायरस + ग्राम कार्बेन्‍डेजिम फफूदनाशक दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्‍चर 10 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। पी.एच.बी. कल्‍चर का उपयोग करें।
उन्नत किस्मों का चुनाव: भूमि का प्रकार, बोने का समय, जलवायु आदि के आधर पर अरहर की जातियों का चुनाव करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहॉ सिंचाई के साधन उपलब्‍ध हो बहुफसलीय फसल पद्धति हो या रेतीली हल्‍की ढलान वाली व कम वर्षा वाली असिंचित भूमि हो तो जल्‍दी पकने वाली जातियां बोनी चाहिए। मध्‍यम गहरी भूमि में जहॉं पर्याप्‍त वर्षा होती हो और सिंचित एवं असिंचित स्थिति में मध्‍यम अवधि की जातियॉ बोनी चाहिए। जिनका विवरण निम्नवत है
भूमि का चुनाव एवं तैयारी: हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।
उर्वरक का प्रयोग: बुवाई के समय 20 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस, 20 कि.ग्रा. पोटाष व 20 कि.ग्रा. गंधक प्रति हैक्टर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिये। तीन वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर आखिरी बखरीनी पूर्व भुरकाव करने से पैदावार में अच्छी बढ़ोतरी होती है।
सिंचाई:जहां सिंचाई की सुविधा हो वहां एक सिंचाई फूल आने से पहले व दूसरी फलियां बनने की अवस्था पर करने से पैदावार अच्छी होती है।
खरपतवार प्रबंधन : खरपतवार नियंत्रण के लिये 20-25 दिन में पहली निदाई तथा फूल आने से पूर्व दूसरी निदाई करें। 2-3 बार खेत में कोल्पा चलाने से निदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है। पेंडीमेथीलिन 450 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण होता है। निदानाषक प्रयोग के बाद एक निदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना चाहिये।अंतरवर्तीय फसल पध्दति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी। मुख्य फसल में कीटो का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी फसल से सुनिष्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पध्दति में कीटों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। अरहर / मक्का या ज्वार 2:1 कतारों के अनुपात में, (कतारों के बीच की दूरी 40 से.मी.), अरहर/मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों के अनुपात में उत्तम अंतवर्तीय फसल पध्दतियां हैं।
पौध संरक्षण ,रोग नियंत्रण
उकटा रोग: इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणता फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई देते हैं। नवम्बर से जनवरी महीनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें जड़े सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उंचाई तक काले रंग की धारियां पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिये रोग रोधी जातियां जैसे सी-11, जवाहर के.एम.-7, बी.एस.एम.आर.-853, आदि बोयें। उन्नत जातियों का बीज बीजोपचार करके ही बोयें। गर्मी में खेत की गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है।

2. बांझपन विषाणु रोग: यह रोग विषाणु से फैलता है। इसके लक्षण पौधे के उपरी शाखाओं में पत्तियां छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नहीं लगती है। ग्रसित पौधों में पत्तियां अधिक लगती है। यह रोग, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिये। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिये। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिये।

3. फायटोपथोरा झुलसा रोग: रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफूंदनाशक दवा प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुवाई पाल (रिज) पर करना चाहिये और मूंग की फसल साथ में लगायें।

ब. कीट नियंत्रण

1. फली मक्खी: यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्य विकास रुक जाता है। मादा छोटे व काले रंग की होती है जो वृध्दिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते हैं और दानों को खाने लगते हैं। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है। जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

2. फली छेदक: छोटी इल्लियां फलियों के हरे उत्तकों को खाती है व बड़े होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लिया फलियों पर टेढ़े-मेढ़े छेद बनाती है। इस की कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियां पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियां होती है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

3. फल्ली का मत्कुण: मादा प्राय: फल्लियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते हैं। इस कीट के षिषु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं, जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दानें सिकुड़ जाते हैं। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते हैं।

4. प्लू माथ: इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियां हरी तथा छोटै-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियां फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।

5. ब्रिस्टल बीटल: ये भृंग कलियो, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उड़द, तथा अन्य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकड़कर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।

कीट प्रंबधन – कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित प्रणाली अपनाना आवष्यक है ,गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें ,शुध्द अरहर न बोयें ,फसल चक्र अपनाये,क्षेत्र में एक ही समय पर बोनी करना चाहिये ,रासायनिक खाद की अनुषंसित मात्रा का प्रयोग करें। ,अरहर में अंतरवर्तीय फसलें जैसे ज्वार, मक्का या मूंगफली को लेना चाहिये।
यांत्रिकी विधि – प्रकाष प्रपंच लगाना चाहिये ,फेरोमेन प्रपंच लगाये ,पौधों को हिलाकर इल्लियां को गिरायें एवं उनकी इकट्ठा करके नष्ट करें। खेत में चिड़ियाओं के बैठने की व्यवस्था करें।
जैविक नियंत्रण –
1. एन.पी.वी. 500 एल.ई. प्रति हैक्टर / यू.वी. रिटारडेंट 0.1 प्रतिषत / गुड़ 0.5 प्रतिशत मिश्रण को शाम के समय छिड़काव करें। बेसिलस थूरेंजियन्सीस 1000 ग्राम प्रति हैक्टर / टिनोपाल 0.1 प्रतिषत / गुड 0.5 प्रतिषत का छिड़कावकरें।

जैव-पौध पदार्थों के छिड़काव द्वारा : 1. निंबोली सत 5 प्रतिषत का छिड़काव करें।

2. नीम तेल या करंज तेल 10-15 मि.ली. / 1 मि.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेडोविट, टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

3. निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिषत या अचूक 0.5 प्रतिषत का छिड़काव करें।
रासायनिक नियंत्रण :

आवश्यकता पड़ने पर ही कीटनाषक दवाओं का छिड़काव या भुरकाव करना चाहिये।
फली मक्खी नियंत्रण हेतु संर्वागीण कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी. 0.03 प्रतिशत,मोनोक्रोटोफॉस 36 ई.सी. 0.04 प्रतिषत आदि।
फली छेदक इल्लियां के नियंत्रण हेतु- फेनवलरेट 0.4 प्रतिषत चूर्ण या क्वीनालफास 1.5 प्रतिषत या क्वीनालफास 25 ईसी 0.05 प्रतिशत या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 0.6 प्रतिषत या फेन्वेलरेट 20 ईसी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्ल्यू.पी. 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर है, या प्राफेनोफॉस 50 ईसी 1000 मि.ली. प्रति हैक्टर का छिड़काव करें।

दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिड़काव सर्वांगीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्ष या सर्वांगीण कीटनाशक का छिड़काव करें। कीटनाशक के 3 छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर, दूसरा 50 प्रतिषत फूल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करना चाहिये

कटाई, मँड़ाई एवं भंडारण : जब पौधे की पत्तियां गिरने लगे एवं फलियां सूखने पर भूरे रंग की पड़ जाये तब फसल को काट लेना चाहिये। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सुखाकर ट्रेक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिशत नमी रहने तक सुखाकर भण्डारित करना चाहिये।

उपज: उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से असिंचित अवस्था में 12-16 क्विटल प्रति हैक्टर उपज और सिंचित अवस्था में 22-25 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज प्राप्त की जा सकती है।

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें -डॉ. संजीत कुमार ,वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष कृषि विज्ञान केंद्र, सोनभद्र स्थित: फसल अनुसन्धान स्टेशन तिसुही, मिर्ज़ापुर, उत्तरप्रदेश

आज ही डाउनलोड करें

विशेष समाचार सामग्री के लिए

Downloads
10,000+

Ratings
4.4 / 5

नवीनतम समाचार

खबरें और भी हैं