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जो मनुष्य अपमान रूपी विष का पान कर जाते हैं उसमें लिप्त नहीं होते वह शिव स्वरूप ही हैं-अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर

मिर्जापुर। सिटी विकासखण्ड के रायपुर पोख्ता ग्रामान्तर्गत शंकराचार्य आश्रम प्रांगण में चल रहे श्रीमद्भागवत ज्ञानयज्ञ सप्ताह के दौरान पांचवें दिन गुरुवार को अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने समुद्र मंथन का वर्णन करते हुए बताया कि मंथन के समय समुद्र से विष निकला। जिसका पान भगवान शिव ने किया, क्योंकि शिव कल्याण के स्वरूप हैं। जो मनुष्य विषय एवं अपमान रूपी विष का पान कर जाते हैं अर्थात उसमें लिप्त नहीं होते हैं और अपने आत्मस्वरूप में स्थिर रहते हैं वह व्यवहार करते हुए भी शिव स्वरूप ही हैं। महाराजश्री के सान्निध्य में कृष्ण जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया तथा कथा में स्वामी जी द्वारा बताया गया कि, यदुवंश में मथुरा नगरी के एक राजा हुए जिनका नाम था शूरसेन। शूरसेन से ही कौरवों एवं पाण्डवों का वंश चला। उन्हीं के वंश में आगे चलकर वसुदेव जी हुए और पत्नी देवकी हुई। माता देवकी धैर्य एवं क्षमा की साक्षात मूर्ति थी। उनके गर्भ से सात पुत्र पैदा हुए और आठवें पुत्र के रूप में साक्षात परमानन्द स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए। यदुवंश में जन्म लेने के कारण श्रीकृष्ण को यदुवंशी कहते हैं। उन्होंने अपने जन्म लीला के द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी को धन्य कर दिया। महान पुरूष जन्म लेकर के सबको धन्य करते हैं सबको पावन बनातें हैं। उनका ज्ञान, उनका प्रेम, उनका आनन्द, उनका सौंदर्य असीम था जिनका ज्ञान, प्रेम, आनन्द असीम होता है याद रखना वही भगवत तत्त्व होता है। मालूम होना चाहिए कि भगवान श्रीकृष्ण का सारा राज्य समुद्र में समाहित हो जा रही है उनके सामने छप्पन करोड़ यदुवंशीयों का नाश हो गया लेकिन उनके आनन्द का नाश नहीं हुआ इसका नाम भगवत्ता है। जीवन के हर क्षेत्र में हमारा आनन्द बना रहे, हमारा सौंदर्य बना रहे, शरीर का सौंदर्य तो विनाशी है वह तो अवतारों का भी, महापुरुषों का भी नष्ट होता है।
पूज्य शंकराचार्य जी ने बताया कि, शास्त्र का उद्देश्य क्या है मनुष्य के हृदय में छिपे हुए सच्चिदानंद भाव को जागृत करने के लिए आध्यात्मिक गुरु का उपदेश होता है और शास्त्र भी आनंद जागृत होने में मदद करता है। भगवान ने जन्म लेकर के धरती को धन्य कर दिया। भगवान के अवतारों से यह धरती धन्य होती आई है महापुरुषों के द्वारा, आचार्यों के द्वारा, गुरुजनों के द्वारा, दानवीरों के द्वारा, शूरवीरों के द्वारा, सती नारियों के द्वारा, यज्ञ यज्ञादि के द्वारा यह पृथ्वी धन्य होती रही है। उनका ज्ञान, उनका प्रेम, उनका माधुर्य, उनका सौंदर्य जिसकी आखों में समा गया जिसके दिल में बस गया उसका भी कल्याण हो गया यह बात भागवत में वर्णन की गई है। श्रोता की चाहना क्या है, श्रोता की आकांक्षा क्या है, श्रोता का प्रश्न क्या है उसके अनुसार वक्ता को बोलना चाहिए अर्थात शास्त्र का निरूपण करना चाहिए। भगवान का चरित्र एक औषधि है श्रोता के हृदय में भगवान के चरित्र को श्रवण करने के लिए ऐसी उत्तम लालसा होनी चाहिए कथा को श्रवण करने के लिए एक उत्साह होना चाहिए महत्वभाव होना चाहिए, क्योंकि भगवान का चरित्र भवरोगों की औषधि है। तृष्णा रहित महापुरुष, भक्तपुरुष भगवान की समीपता का अनुभव करते हुए भगवान का रस लेते रहते हैं और भगवत रस लेते हुए भगवान की चरित्र की लीलाओं का गायन करते रहते हैं। इसलिए कथा से जो अपने को अलग रखता है वह आत्मघाती माना गया है अपशुन्य माना गया है। अपने ही अंदर अपने ही आनन्द से वंचित रखना यह आत्महत्या नहीं तो और क्या है। ऐसे लोग धन होने पर, पद होने पर, भोग होने पर भी परेशान रहते हैं।
इस अवसर पर अशोक शुक्ल, हरिश्चन्द्र शुक्ल(ग्राम प्रधान), सभापति तिवारी, डॉ. शारदा शुक्ल, नागेन्द्र दुबे, रविशंकर शुक्ल, देवमणि शुक्ल, मनोज पांडेय, अच्युतानंद शुक्ल, विजय शंकर मिश्र, रामेश्वर शुक्ल, गुड्डू तिवारी एवं अन्यान्य भक्तों ने पादुका पूजन कर सत्संग लाभ प्राप्त किया।

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