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भेद को निर्मूल कर अभेद दृष्टि स्थापित करना ही श्रीमद्भागवत का प्रयोजन है-स्वामी नारायणानंद महाराजश्री

मिर्जापुर। सिटी विकासखंड के रायपुर पोख्ता ग्रामान्तर्गत शंकराचार्य आश्रम प्रांगण में चल रहे श्रीमद्भागवत सप्ताह ज्ञानयज्ञ के दौरान रविवार को पूज्यपाद अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री द्वारा भागवत वाचन में बताया गया कि कोई भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे मन में दृढ़ संकल्प होना आवश्यक है। मनुष्य के दृढ़ संकल्प से ही धर्म, कर्म, यज्ञ, व्रत एवं भागवत श्रवण आदि सम्भव होता है तथा कार्य की सिद्धि होती है। भेद को निर्मूल कर अभेद दृष्टि स्थापित करना ही श्रीमद्भागवत का प्रयोजन है। तक्षक रूपी अविद्या का नाशक भागवत है अर्थात भागवत श्रवण का फल है। ज्ञात हो कि महाराजश्री के सान्निध्य में कथा के अंतिम दिन सोमवार को मध्यान्ह 11 बजे से विशाल समष्टि भंडारा का आयोजन सुनिश्चित है, जिसमें समस्त क्षेत्रवासियों की उपस्थिति संप्रार्थित है।
पूज्य महाराजश्री ने बताया कि, चाहे यज्ञ हो, दान हो या तप हो बिना आध्यात्मिक लक्ष्य के व्यर्थ रहता है । अतएव यह घोषित किया गया है कि ऐसे कार्य कुत्सित हैं । प्रत्येक कार्य कृष्णभावनामृत में रहकर ब्रह्म के लिए किया जाना चाहिए । सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में भगवान में श्रद्धा की संस्तुति की गई है । ऐसी श्रद्धा तथा समुचित मार्ग दर्शन के बिना कोई फल नहीं मिल सकता । समस्त वैदिक आदेशों के पालन का चरम लक्ष्य कृष्ण को जानना है । इस सिद्धान्त का पालन किये बिना कोई सफल नहीं हो सकता । इसीलिए सर्वश्रेष्ठमार्ग यही है कि मनुष्य प्रारम्भ से ही किसी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में कृष्णभावनामृत में कार्य करे । सब प्रकार से सफल होने का यही मार्ग है ।
पूज्य शंकराचार्य जी ने बताया कि, बद्ध अवस्था में लोग देवताओं, भूतों या कुबेर जैसे यक्षों की पूजा के प्रति आकृष्ट होते हैं । यद्यपि सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण से श्रेष्ठ है, लेकिन जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को ग्रहण करता है, वह प्रकृति के इन तीनों गुणों को पार कर जाता है । यद्यपि क्रमिक उन्नति की विधि है, किन्तु शुद्ध भक्तों की संगति से यदि कोई कृष्णभावनामृत ग्रहण करता है, तो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। इस प्रकार से सफलता पाने के लिए उपयुक्त गुरु प्राप्त करके उसके निर्देशन में प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए । तभी ब्रह्म में श्रद्धा हो सकती है । जब कालक्रम से यह श्रद्धा परिपक्व होती है, तो इसे ईश्वरप्रेम कहते हैं । यही प्रेम समस्त जीवों का चरम लक्ष्य है । अतएव मनुष्य को चाहिए कि सीधे कृष्ण भावनामृत ग्रहण करे।
इस अवसर पर अशोक शुक्ल, हरिश्चंद्र शुक्ल(ग्राम प्रधान), डॉ. संजय त्रिपाठी, डॉ. शारदा शुक्ल, नागेन्द्र दुबे, राममणि सारस्वत, सभापति तिवारी, देवमणि शुक्ल, कुबेर पांडेय, दीनानाथ दुबे एवं अन्यान्य भक्तों ने पादुका पूजन व माल्यार्पण कर सत्संग लाभ प्राप्त किया।

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