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जो पुस्तक पढ़कर ज्ञानी बन जाते हैं उनके जीवन में नियम-संयम नहीं होता है-MIRZAPUR

मिर्जापुर। सिटी विकाशखण्ड के रायपुर पोख्ता ग्रामान्तर्गत शंकराचार्य आश्रम प्रांगण में चल रहे श्रीमद्भागवत सप्ताह ज्ञानयज्ञ के दौरान तृतीय दिवस मंगलवार को अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने बताया कि स्वार्थ भाव एवं संकीर्णता से ऊपर उठकर परमात्म भाव एवं उदारता से निष्काम कर्म करना यज्ञ करना है। कर्म करने से कार्य दक्षता आती है तथा आत्मविश्वास बढ़ता है।
यज्ञ क्या है बहुत से लोग इसे नहीं समझते है। यज्ञ शब्द का अर्थ सत्संग भी होता है और देवपुजा भी होता है और दान भी होता है। यज्ञ का अर्थ एक जीवन में नियम होता है जो यज्ञ नहीं करते है उनके जीवन में नियम नहीं होता है। ऋषी मुनी यज्ञ करते इसीलिए उनका जीवन नियंत्रित बना रहता है और जो पुस्तक पढ़कर ज्ञानी बन जाते हैं उनके जीवन में नियम-संयम नहीं होता है और कोई मर्यादा नहीं होती है क्योंकि यज्ञ से जीवन में एक नियम बनता है। यज्ञ धर्म के अनुशासन और आचार्य के अनुशासन में होती है। यज्ञ में दो चीज होती है उत्सर्ग मतलब त्याग । यज्ञ करने से सबको लाभ होता है जिसकी जैसी योग्यता होता है उसी प्रकार से मिलती है। हम देवताओं का पूजन पाठ इसीलिए करते हैं, उससे मन तृप्त रहता है और यज्ञ सबको करने का अधिकार है कोई भी जाती का हो। भगवान ने हम को रहने के लिए धरती दिया है पीने के लिए पानी दिया है और भोजन पकाने के लिए आग दिया है और भ्रमण करने के लिए आकाश दिया है। जैसे आप प्रकृति से विधिपूर्वक लेते है उसी तरह से विधिपूर्वक देना भी चाहिए उसी का नाम यज्ञ है। मनुष्य को लेना ही नहीं देना भी सीखना चाहिए कमाने के बाद दसवाँ अंश दान भी करना चाहिए सब को यज्ञ करना चाहिए।
शंकराचार्य जी ने बताया, अंहकार से प्रेरित होकर तथा अंहकार की संतुष्टि के लिए दान आदि शुभ कर्म करना भी दोष उत्पन्न करता है। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अथवा लोकप्रियता के प्रलोभन से उत्तम कर्म करना भी मनुष्य का अधःपतन कर देता है। अहंकार युक्त मनुष्य दूसरों के प्रति कभी सच्ची सद्भावना नहीं रख सकता उसे शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। अंहकार से कर्म में प्रवृत्त होने पर कर्म दूषित हो जाता है। लोकप्रियता एवं सम्मान की कामना द्वारा विकृत अहंकार से घृणा उत्पन्न होती है तथा कामना तृप्ति में विघ्न होने पर घृणा का क्रोध के रूप में विस्फोट हो जाता है। घृणा तथा ईर्ष्या-द्वेष मन को विषाक्त बनाकर मनुष्य का पतन कर देते हैं। घृणा तथा ईर्ष्या-द्वेष मनुष्य को असहनशील बना देते हैं। घृणाशील मनुष्य संकीर्ण होता है तथा लोग उससे बैर करने लगते हैं। घृणा मनुष्य को जनमानस से दूर कर देती है।
पूज्य महाराजश्री ने बताया कि, विश्व में कई संस्कृतियां नष्ट हो गई पर वैदिक संस्कृति भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति जिसका संबंध सीधे ईश्वर के साथ है, उसकी रक्षा करने के लिए सनातन धर्म में अनेक देवी देवताओं के अवतार होते हैं। जहां मानवीय शक्ति कमजोर हो जाती है, वहाँ भक्त लोग ईश्वर की आराधना करते हैं और ईश्वरीय शक्ति ही यहाँ आकर के दुष्टों का संहार कर के धर्म की मर्यादा स्थापित करती है।

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