समाचारदैत्य कुल में जन्म लेकर भी भक्त प्रह्लाद का भगवतभक्त हो जाना...

दैत्य कुल में जन्म लेकर भी भक्त प्रह्लाद का भगवतभक्त हो जाना यह संस्कारों से ही सम्भव है-अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर

मिर्जापुर। केवल एक भगवत्तत्व ही वास्तविक त्तत्व है, बाकी सब अतत्व है। जब-तक अन्तःकरण में संसार का महत्त्व होता है, तब-तक प्यारे प्रभु का महत्व समझ में नहीं आ सकता है। कभी-कभी हम संसार की हर नाशवान वस्तु के पीछे दौड़ते हैं, पर जो नाशवान नहीं है,उसको भुला बैठते हैं। संसार की हर प्राप्त वस्तु नष्ट होने वाली है, पर जो परमतत्त्व परमात्मा है, वह कभी नष्ट नहीं होता। उक्त बातें अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री, सिटी ब्लाक के रायपुर पोख्ता ग्रामान्तर्गत शंकराचार्य आश्रम परिसर में चल रहे श्रीमद्भागवत ज्ञानयज्ञ सप्ताह के अवसर पर बुधवार को चतुर्थ दिवस कही।
महाराजश्री ने जड़भरत का प्रसंग वर्णन करते हुए बताया कि, अंतकाल में मनुष्य की आसक्ति जिसमें होती है उसको वैसी ही योनी प्राप्त होती है। भरत को अंतकाल में हिरण के बच्चे में आसक्ति हो गई तो उन्हें अगले जन्म में हिरण की योनी प्राप्त हुई। सांसारिक क्रियाकलापों में लिप्त जब हम कई तरह के संकट में फँस जाते हैं अथवा अपने पूर्ण जन्म के संस्कारों से जब हमें जब कभी प्रभु प्रेमीजनों का सानिध्य प्रसाद रूप में प्राप्त होता है, तो सहसा हमें उस परमतत्त्व परमात्मा की अनुभूति अंतर्मन में करने की लालसा हो उठती है।
जिस प्रकार से हम अपने छोटे से निश्छल बच्चे के मुख से अपना नाम सुनना पसंद करते हैं तथा बार बार कहने को कहते हैं और उसके बुलाने पर उसके पास दौड़े चले जाते हैं। निश्छल प्रेम और सरल हृदय के भाव के भूखे प्रभु, अपने भक्त की करुण पुकार सुन ठीक उसी प्रकार प्रकट हो जाते हैं।
हमारे जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। दैत्य कुल में जन्म लेकर भी भक्त प्रह्लाद का भगवतभक्त हो जाना यह संस्कारों से ही सम्भव है। भारतीय संस्कृति के जीवंत संस्कारों में प्रमुख हैं देवार्चन और देवदर्शन। हमारा जन्म, हमारे कार्य, हमारा मन और हमारी वाणी के द्वारा सर्वसमर्थ भगवान की सेवा करना ही देवार्चन है और साथ ही श्रेष्ठ सदाचार भी है। जो हमारी आस्था-ज्योति के आलोक से अज्ञानता के सघन-अंधकार को नष्ट कर शांति प्रदान करती है। छलरहित और शुद्ध मन की ‘स्तुति’ ही प्रभु स्वीकारते है और नृसिंह अवतार लेकर भक्त प्रह्लाद की रक्षा करते हैं।
पूज्य शंकराचार्य जी ने गजेंद्र मोक्ष की कथा का विवेचन करते हुए बताया कि, जब तक जीव को अपने बल का, तपस्या का, वैभव का, बुद्धि का, विद्या का, पद का अभिमान रहता है तब तक उसे भगवततत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। गजेंद्र, ग्राह से अपने प्राणों की रक्षा के लिए जब सभी प्रकार के अभिमानों से रहित होकर प्रभु का स्मरण करता है तो भगवान भी तत्क्षण प्रकट हो जाते हैं और गजेंद्र की ग्राह से रक्षा करते हैं। जिस प्रकार एक गाय अपने बछड़े की पुकार सुन सुदूर जंगलों में कितनी ही दूर हो, वो वहीं से दौड़ती हुई उसके पास चली आती है और उसे स्नेह एवं ममता से सहलाने लगती है। जिस प्रकार गाय को अपने बछड़े में अपार ममता होती है, उसी प्रकार दीनदयाल, करुणानिधि प्रभु में भी निज भक्तों के लिये अपार ममता होती है एवं जब किसी भक्त की करुण पुकार प्रभु तक पहुचती है तो प्रभु भी अपने आप को रोक नहीं पाते और दौड़े चले आते हैं निज भक्त के पास।
प्रभु तो प्रेम को डोरी में स्वयं ही बंधने के लिये तत्पर रहते हैं, परन्तु उन्हें निश्चल प्रेम की डोरी में बांधने वाला विरला ही कोई होता है। किन्तु इस संसार में कई ऐसे भी भक्तवृंद हुए है, जिनके पूर्ण समर्पण के भाव से उन्हें प्रिय प्रभु की प्राप्ति हुई है। अगर हम लोग भी अपने हृदय में उन भक्तों के सदृश्य अंश मात्र भी प्रभु प्रेम की ज्योत पूर्ण समर्पण भाव से जगा ले तो प्रभु कृपा की प्राप्ति में लेष मात्र भी संशय नहीं है।
इस अवसर पर अशोक शुक्ल, हरिश्चन्द्र शुक्ल(ग्राम प्रधान), डॉ. शारदा शुक्ल, सभापति तिवारी, भागवत सिंह, देवमणि शुक्ल, गुड्डू तिवारी, नागेन्द्र दुबे, रवि शुक्ल, राम सागर शुक्ल आदि भक्तों ने पादुका पूजन कर सत्संग लाभ प्राप्त किया।

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