शीर्षक:- बावला कैसा हुआ रे इंसा माने ना कोई ठौर!
बाग उजाड़े खेत जलाए
जंगल काटे पेड़ गिराए ।
सूखी धरती आग उगलती
तपती तेज़ रसायन सहती।
जहर हुआ वर्षा का पानी।
मांगे धूप सुनहरी धानी।
चूस रहा धरती का सीना
बूझ रहा इसको वह जीना।
बावला कैसा हुआ रे इंसा
माने न कोई ठौर रे देखो माने ना कोई ठौर।।
बोय इमारत मॉल उगेगा।
तुष्टि का फल उसमें उगेगा।
दिग्गी कबार्ड कूड़े से भरेगा
हाय! फिर भी कम ही पड़ेगा।
ढेरो खरीदे ढेरो बेचें
फिर भी जाने किसको तरसे।
इतनी प्यास कहाँ से उगाई
धरती का सीना चीर के भाई।
लालसा कैसी बढाई रे इंसा
माने न कोई ठौर रे देखो माने ना कोई ठौर।।
नदियां पर्वत सागर अम्बर
जिसमें करते वास दिगम्बर।
देता चुनौती उसकी सत्ता
चाहे चुनना अपना रस्ता।
खोद रहा है पारस पत्थर
लेगा विधाता से तब टक्कर।
बांध रहा बारूद के लड्डू
परसेगा हर पीढ़ी को दद्दू।
ज्ञानी बड़ा ही हुआ रे इंसा
माने न कोई ठौर रे देखो माने ना कोई ठौर।।
दूर खड़ा आभासी नाता,
छलता और छलाता जाता।
रेती बालू सीमेंट से सस्ते
बन्द कमरों में जम रहे रिश्ते।
ढूंढ रहा जन्नत का रास्ता
आँसू बादल दोनों बावस्ता।
छोड़ धरा आकाश को नापा
गिरने से क्यों कर फिर कांपा।
सब कुछ पा कर खोया रे इंसा
माना नहीं कोई ठौर रे देखो माने ना कोई ठौर।।
सारिका चौरसिया
(राष्ट्रीय पुष्पेंद्र कविता सम्मान से सम्मानित)
मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश।।