मिर्जापुर। सिटी ब्लाक के अंतर्गत रायपुर पोख्ता ग्रामान्तर्गत शंकराचार्य आश्रम परिसर में चल रहे श्रीमद्भागवत ज्ञानयज्ञ सप्ताह के दौरान सोमवार को द्वितीय दिवस आचार्यचरण अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने कहा कि, संसार में सभी प्राणियों को अपना आत्मा प्रिय होता है, आत्मसंतुष्टि के लिए ही प्राणी कर्म में प्रवृत्त होता है। अतः आत्मस्वरूप में अवस्थिति हो, ऐसा कर्म जीवमात्र को करना चाहिए। स्वामी जी ने कहा कि सहिष्णुता से ही जीवन का विकास होता है। अश्वस्थामा द्वारा पाण्डव पुत्रों के हत्या के पश्चात भी द्रोपदी द्वारा अश्वस्थामा को क्षमा करना, यह सहिष्णुता एवं विनयशीलता का ही परिचायक है। विनय विद्या के अधिगम का साधन है। विनयशील प्राणी ही ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी होता है। धर्म रक्षा के लिए ही महापुरुषों का अवतार होता है। जब ब्रह्मा जी को सृष्टि विस्तार के लिए क्षोभ हुआ तो उनका शरीर दो भागों में विभक्त हो गया, जिनके एक भाग से महर्षि मनु पुरूष रूप में व दूसरे भाग से माता सतरूपा स्त्री रूप में प्रकट हुई। मनु-सतरूपा से ही मानव सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात समस्त मानव जाति मनु-सतरूपा की संतानें हैं। मनु-सतरूपा ने अपनी तीसरी पुत्री का विवाह संबंध महर्षि कर्दम से किया। महर्षि कर्दम एवं माता देवहूति ने तपस्या किया तो भगवान स्वयं कपिल के रूप में अवतरित हुए। भगवान कपिल सांख्ययोग के प्रणेता एवं साक्षात ज्ञान के अवतार थे। कोई भी नर-नारी जब तपस्या करेगा तो वहाँ पर योग्य संतान पैदा होगी। यह प्राचीन युग का सत्य नहीं है, हर युगों का सत्य है। माता-पिता संयम रखेंगे, तपस्या करेगें, ईश्वर पर निष्ठा होगी, कर्तव्यपरायणता होगी, धर्म-गुरु-शास्त्र में श्रद्धा होगी तो उसकी संतान दैवी सम्पदा से युक्त जरूर पैदा होगी। आज के परिवेश में दैवी संतानों की अधिक आवश्यकता है। उन्हीं के द्वारा धर्म का रक्षण होता है।
वाशनावशवर्ती होकर मनुष्य जब कर्म करता है तो वह आसुरी सम्पदा का परिचायक है एवं गुरु, शास्त्रानुसार जो कर्म करता है वह दैवी सम्पदा का परिचायक है। अस्तु, दैवी सम्पदा से जीवनयापन करने वाले माता-पिता के यहाँ स्वयं भगवान एवं महापुरुष जन्म लेते हैं।
पूज्य शंकराचार्य जी द्वारा भगवान कपिल एवं माता देवहूति जी संवाद का वर्णन करते हुए बताया गया कि कर्मयोगी के जीवन में मानसिक अनुशासन का बहुत अधिक महत्व है। मन तथा शरीर का पारस्परिक संबंध है। मन के चिंतन का शरीर पर तथा शरीर के स्वास्थ्य का मन पर प्रभाव पड़ता है। मन के सुखी अथवा दुःखी होने पर शरीर स्वस्थ अथवा शिथिल हो जाता है तथा शरीर के स्वस्थ अथवा अस्वस्थ होने पर मन प्रसन्न अथवा उदास हो जाता है, किन्तु वास्तव में मन शरीर पर शासन करता है तथा शरीर पर मन का ही प्रभुत्व होता है। मानसिक अनुशासन से अर्थात मन को संयत एवं नियंत्रित करने से शरीर को नियंत्रित करना संभव होता है। कर्मयोगी अपने मन एवं इंद्रियों को संयत एवं नियंत्रित रखकर ही प्रभोलनों पर विजय प्राप्त कर सकता है तथा कर्तव्य मार्ग में दृढ़ रह सकता है। सांसारिक पदार्थों की आसक्ति चित्त को चंचल एवं अशांत कर देती है तथा आसक्ति ग्रस्त मनुष्य न कोई उत्तम उपलब्धि कर सकता है और न ही शांति पा सकता है। आसक्ति ही मोह का रूप धारण करके मनुष्य के विवेक का हरण कर लेती है तथा बुद्धि को असंतुलित कर देती है। मोह के कारण मनुष्य भावुक होकर कर्तव्य भ्रष्ट हो जाता है। कर्मयोगी सहृदय एवं करुणाशील तो होता है, किन्तु भावुकता के प्रवाह में नहीं बहता। उत्तम भावना विकृत होकर भावुकता बन जाती है। भावुक मनुष्य दृढ़ता से परिस्थिति का सामना नहीं कर सकता बल्कि शोक, क्रोध अथवा निराशा से ग्रसित होकर दयनीय अवस्था को प्राप्त हो जाता है। मोह के कारण ही मनुष्य वस्तुओं की आवश्यकता से अधिक परिग्रह की कामना से ग्रस्त हो जाता है। कर्मयोगी भोग से त्याग की ओर बढ़ता रहता है तथा त्यागपूर्वक भोग करता है। त्याग से ही शांति प्राप्त होती है। त्याग वृत्ति मनुष्य को ऊँचा उठा देती है। भोग वृत्ति मनुष्य को नीचे की ओर ले जाती है। दूसरों के हित में अथवा समाज के हित में त्याग करना व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए श्रेयस्कर होता है। अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर जनमानस के हित को दृष्टि में रखकर कर्म करना, यज्ञ भावना से कर्म करना है।
उक्त कार्यक्रम नारायण सेवा समिति व समस्त क्षेत्रवासियों द्वारा आयोजित किया गया। जिसमें समिति के अध्यक्ष हरिश्चन्द्र शुक्ल(ग्राम प्रधान), समस्त पदाधिकारी एवं अन्यान्य भक्तों ने पादुका पूजन कर कथा लाभ प्राप्त किया।
श्रीमद्भागवत ज्ञानयज्ञ सप्ताह का द्वितीय दिवस-MIRZAPUR
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